Monday, March 10, 2014

"बेड़ियां" औरत की आत्म कथा


















क्या किसी ने देखी है?
मेरे पाँव कि बेड़ियां
वो लोहे कि
भारी मोटी अनदेखी ज़ंज़ीर
जिसमे पुरुष प्रधान समाज
और वक़्त ने मुझे जकड़ दिया है
वो डर
जो मेरा हमसाया है
मेरे साथ-साथ चलता है
कभी अंधेरो के कालेपन में   
कभी सूरज के खारेपन में   
कभी भीड़-भाड़ में 
तो कभी तन्हाई में 
मिलता है और फिर छोड़ता नहीं मुझे
जब भी मैं इस भरम में आती हूँ
कि इन पंछियो कि तरह
पूरी कायनात मेरी है
तो सदमा चढ़ बैठता है सीने पर
टूटती-बिखरती सहमी हुई
बेटी हूँ मैं
जन्म से पहले सोचा गया
कि मारा कैसे जाए
पैदा होने के बाद सोचा गया
कि बांधा कैसे जाए
जब बाहर निकली तो सोचा गया
ताड़ा कहाँ और कैसे जाए
मैंने जब लिबास पहना तो
तरकीब लगाया गया
कि आखिर इसे फाड़ा कैसे जाए
क्या कहूं ?
बहुत भारी है मन
अवसाद का जंगल उभर आया है
सिर्फ कांटे बचे हैं
औरत के भाग्य के हिस्से में
जिसपे चलना हमें ही है
कभी अपनों के लिए
कभी सब कुछ सही हो जाएगा
ऐसे ही कुछ सपनो के लिए
शायद
कभी समाज के आँख से पर्दा हट जाए
गन्दी मानसिकता बदल जाए
बस इसी सोच के साथ
हर दिन ढल जाता है
और
इसी उम्मीद के साथ ही
मेरी सुबह चल पड़ती है!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक







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