Tuesday, April 8, 2014

"कहूं या न कहूं"

जुबां तक आकर
इक बात रुक सी गयी है
अब न भीतर समा रही है
न ही ये बेबस तमन्नाये
कुछ बयां कर पा रही हैं 
बस इस ख्याल से
कि तुम
खफा न हो जाओ सुन के
ये बकरारियां बेहिसाब मेरी
सोचती हूँ कि
रोक लूँ हमेशा के लिए
बर्दास्त के घरोंदे में
ये उलझी-पेचीदी सी बात
नशा और खुमार ला देती है जो
तेरे वहम का शुमार ला देती हैं जो
क्या करूँ ??
रहने ही दूँ या फिर ले चलूँ
अहसास कि नदी को
मन के सागर तक बहा कर 
लेकिन फिर अचानक ये ख्याल आता है कि
ये कश्मकश तुम्हे आखिर
कहूं या न कहूं !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

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