Friday, April 18, 2014

!! बुझ जाना नहीं सीखा !!

ये बात और है कि ये काफिला नहीं जीता
हमने मगर लड़खड़ाना भी नहीं सीखा

आएगी इक दिन ये बाज़ी मेरी मुट्ठी में
क्यूंकि हमने पीठ दिखाना भी नहीं सीखा

हम हवा जैसे हैं जिस और चाहें मुड़ जाएँ
इन पर्वतो से टकरा के गिर जाना नहीं सीखा

जब चिराग नहीं तो जीस्त अपना जलता हैं
इक फूक से हमने बुझ जाना नहीं सीखा

वक़्त शूल है तो हम भी फूल गुलाब हैं
इनकी चुभन से हमने बौखलाना नहीं सीखा

हम खुद इक सवेरा हैं चाँद-रातो से जलन कैसी
यूँ बैचैन हो हमने तिलमिलाना नहीं सीखा 

हम समंदर हैं बादलो को नमी देते हैं
बूंदो से गड्ढो कि तरह भर जाना नहीं सीखा

जब मैं नहीं बोलती तो मेरा फन बोलता हैं
जिन्दा होकर भी कफ़न में मुँह छिपाना नहीं सीखा

मुझे मालूम नहीं मैं तारीख में आउंगी या नहीं
मगर इस भीड़ में मैंने राई बन जाना नहीं सीखा  

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

No comments:

Post a Comment

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!