Thursday, June 12, 2014

"बाट जोहता घर"

कबूतरो ने बयालो में
खर-पतवार एकत्र करके
बना लिया था नया ठौर-ठिकाना
अपना घोसला.....
सांपो ने डेरा डाल लिया था
रात की रानी की जड़ो में...
तो कुछ इधर-उधर
बेखौफ टहलते दिखे...
हाँडियो का लटका मिला
रोशनदान के ऊपरी हिस्से पर छत्ता
बुद-बुद चू रहा था
करवन के पेड़ से करवन..
नीम्बू पीले हो गए थे
तो कुछ सूख गए थे
गाँठ तक उगी थी दूब-घास
मिट्टी के आँगन में...
चढ़ा हुआ था दीवारो पे सीलन...
ज़मा था छत पे पानी
दरवाजे की जंजीर जंगा गयी थी
कमरे में पड़े सामानो पर
धूल की चादर डली हुई थी
प्रतीत हो रहा था मेरा घर
मानो किसी खण्डर में प्रवेश किया हो
जबसे परदेश कमाने निकली
वहां के फ्लैट के सफ़ेद फर्श को
रगड़-रगड़ के साफ़ करते हुए
भूल गयी थी
मेरे गांव में मिट्टी का घर है
जो कबसे तरस रहा है
कोई आये
और उसका तन भी झाड़े-पोछे....!!!


रचनकार : परी ऍम "श्लोक"

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