Tuesday, July 22, 2014

लोग नजाने कैसे दिल में खंज़र रखते हैं ....

लोग नजाने कैसे दिल में खंज़र रखते हैं..
मैं गुस्सा भी रखता हूँ तो आवाज़ो में आ जाती हैं..

कितनी भी छिपाऊं आपबीती मैं ज़माने से ..
उछल कर हाल-ए-हालात मेरे अल्फाज़ो में आ जाती हैं ..

मैं पहुंच जाता हूँ कामयाबी के आखिरी छोर पर ..
फिसल कर फिर मेरी हस्ती आग़ाज़ो में आ जाती है...

दिन भर भटकता है गरीब शहर में जालिम पेट के खातिर
रात को नींद हँसती हुई टूटी खाटो पे आ जाती है

इंसान भी हसरत से आसमा के पंछी कि तरह है
पंख कटते ही ज़मी पे बनते ही परवाज़ो में आ जाती है

वो बेटी घुट कर बाहर निकलने कि कोशिश करती है
जान उसकी परमपराओं के दरवाज़ों में आ जाती हैं

जुल्म का गुरेज जब भी करने का भी मन करता है
माँ कि जान है कि बच्चे कि मुट्ठी में आ जाती हैं

वही धरती वही आसमान वही पानी वही मौसम
दलित के नाम पे फर्क फिर क्यूँ जुबानों में आ जाती है ?

खुदा का रूप वो भी है खुदा का नज़राना तू भी
औरत के नाम पे हरकत क्यूँ इमानो में आ जाती हैं?

---------------परी ऍम 'श्लोक' 

6 comments:

  1. बेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मुकेश के जन्मदिन पर.

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  2. दिन भर भटकता है गरीब शहर में जालिम पेट के खातिर
    रात को नींद हँसती हुई टूटी खाटो पे आ जाती है ..
    होता है ऐसा ... म्हणत कशों का हाल कुछ ऐसा ही होता है ... बहुत खूब ...

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  3. सुंदर बिंब, बहुत बेहतरीन.

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