Saturday, August 16, 2014

हो न हो...तुम आओगे ज़रूर


बार बार
अंधेरो में रोशनी
टटोलती हूँ
और ओंधे मुँह
गिर पड़ती हूँ

उम्मीद का 
परिणाम
हर बार मिलता है
किन्तु बेकार ,
टूटा,
बिखरा हुआ
पर मन के हाथो
इस चूक से मिली
पीड़ा को
पुचकार कर
उतर जाती हूँ
फिर से
उस इंतज़ार कि
गहरी लम्बी
नदी में
जिसका
न ओर मिलता है
न ही छोर
बस इक धुंधला मंज़र है
जो खींचता है मुझे
शायद!
ज़ोर से
झिड़कने के लिए

रह गयी हूँ मैं बस
मोम सी पिघलने के लिए
जिन्हे परिस्थितियों की गर्म हवा
जाने कब टघला के
काया पलट दे
कुछ कहा नहीं जा सकता

बस अब
कुछ ही क्षण
ओर
बर्फ सी कठोर हूँ
जब तक इस
यकीन की ठंडक
भीतर से नहीं जाती

कि हो न हो
तुम आओगे ज़रूर !!

_____________परी ऍम श्लोक 

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